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ग़ालिब की ग़ज़ल : ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक
शनिवार,दिसंबर 27, 2014
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बुधवार,जुलाई 23, 2014
नई दिल्ली। उर्दू शायरी को दो संस्कृतियों के मिलने का ज़रिया मानने की हामी रही कामना प्रसाद ने अब इस दिशा में एक और क़दम बढ़ाया है।
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बुधवार,जुलाई 23, 2014
वली मोहम्मद वली इस उपमहाद्वीप के शुरुआती क्लासिकल उर्दू शायर थे। वली को उर्दू शायरी के जन्मदाता के तौर पर भी जाना जाता है। उनकी पैदाइश 1667 में मौजूदा महाराष्ट्र सूबे के औरंगाबाद शहर में हुई। यही कारण है कि उन्हें वली दकनी (दक्षिणी) और वली औरंगाबादी ...
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बुधवार,मार्च 12, 2014
उर्दू शायरी भी होली के रंगों से बच नहीं पाई है। अठारहवीं सदी से आज तक के शायरों ने अपने कलामों में होली का जो रंग बिखेरा है वह इस बात का प्रमाण है कि दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर सद्भाव को प्रदूषित करने के सारे प्रयास कुछ निहित स्वार्थी तत्वों की ...
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एक अदीब या साहित्यकार का अनजाने में ही न जाने किस-किस से रिश्ता होता है। कभी किसी की आँख में आँसू देख ले तो उसके ग़म में टूटकर, उसी क़तरे में डूब जाए। कहीं किसी के लबों पर मुस्कान तैरती मिले तो साहिल पर बैठा दीवानावार न जाने कब तक उसी मुस्कान को ...
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शुक्रवार,मार्च 22, 2013
जब फागुन के रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की। और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
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गुरुवार,अगस्त 5, 2010
मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत,
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे।।
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गुरुवार,अगस्त 5, 2010
डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों का हुजूम, पल की मौहलत थी, मैं किसको आँख भरकर देखता।।
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हिज्र की सब का सहारा भी नहीं
अब फलक पर कोई तारा भी नहीं।
बस तेरी याद ही काफी है मुझे,
और कुछ दिल को गवारा भी नहीं ...
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झूठ का लेकर सहारा जो उबर जाऊँगा,
मौत आने से नहीं शर्म से मर जाऊँगा
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बहुत अहम है मेरा काम नामाबर1 कर दे
मैं आज देर से घर जाऊँगा ख़बर कर दे
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सोमवार,अप्रैल 26, 2010
रहिये अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो, हम सुख़न कोई न हो और हम ज़ुबाँ कोई न हो ...
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सोमवार,अप्रैल 26, 2010
अपनी गली में, मुझको न कर दफ़्न, बाद-ए-कत्ल
, मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले ...
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मंगलवार,अप्रैल 21, 2009
नुक्ताचीं हैं ग़मे-दिल उसको सुनाये न बने
, क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने
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बुधवार,अप्रैल 1, 2009
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही
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सोमवार,मार्च 16, 2009
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले
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बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले।
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उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
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शुक्रवार,फ़रवरी 27, 2009
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आंख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है
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बुधवार,दिसंबर 24, 2008
उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
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